सरकार हमेशा घाटे का तर्क देती है। एक समूह सरकार के इस तर्क का समर्थन भी करता है। अब सवाल है कि क्या सरकार के इस तर्क को उचित ठहराया जा सकता है? जाहिर तौर पर नहीं। यह सही है कि अर्थव्यवस्था संभालना भी सरकार का दायित्व है। मगर उससे बड़ा दायित्व कल्याणकारी व्यवस्था भी कायम करने की है। सरकार अर्थव्यवस्था के दायित्व की चर्चा बार-बार करती है, मगर भूले भटके भी कल्याणकारी राज्य की स्थापना की बात नहंी करती। यह कैसी व्यवस्था है जिसमें कई राज्यों की अर्थव्यवस्था महज शराब पर टिकी है?

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आर्यभट्ट ने दुनिया को शून्य दिया। इस शून्य ने गणना का इतिहास बदल दिया। जाहिर तौर पर शून्य की अवधारणा का आविष्कार क्रांतिकारी था। शून्य कुछ भी नहीं या कुछ नहीं होने की अवधारणा का प्रतीक है। वह शून्य ही है जो एक आम व्यक्ति को गणित में सक्षम होने की क्षमता पैदा करता है। शून्य के बिना सटीक गणना असंभव है। इस आविष्कार ने ऐसी ऐसी गणितीय पहेलियां सुझाई कि गणना करना आसान हो गया। आविष्कार के क्षेत्र में इसकी अपनी और महान भूमिका है।

सवाल है कि आज शून्य पर चर्चा क्यों? चर्चा इसलिए कि शून्य के महत्व को सबसे अधिक हमारे रेल विभाग ने समझा है। ऐसा लगता है मानो आर्यभट्ट ने शून्य की खोज रेलवे विभाग के लिए ही की थी। और रेलवे विभाग ने ही शून्य की अवधारणा को सही अर्थों में समझने के बाद इसका बेहद सकारात्मक उपयोग किया। शून्य की सहायता से मुनाफा कमाने की नई तकनीक इजाद की है।

दरअसल रेलवे में इंजीनियरों और अर्थशास्त्रियों का भरमार है। इन इंजीनियरों और अर्थशास्त्रियों ने इस अवधारणा को भी झूठा साबित कर दिया कि किसी अंक के बाईं तरफ शून्य का होना महत्वहीन है। शून्य का महत्व अंक के दाईं ओर होने से है। दाईं और शून्य लगाते जाईये और अंक को मनमुताबिक बड़ा करते जाईये। रेलवे ने मुनाफा कमाने के लिए इस शून्य का विलक्षण प्रयोग किया है। रेलवे ने बता दिया है कि किसी अंक के बाईं ओर शून्य लगा कर मुनाफा कमाया जा सकता है।

अब मुद्दे पर आते हैं। कोरोना के बाद भारतीय रेल कमाई की राह पर है। बीते साल के मुकाबले इस साल के शुरुआती पांच महीने में ही रेलवे की कमाई में अड़तीस फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। मुनाफे के कई कारण हैं, मगर असली कारण भारतीय रेल का शून्य का अनोखा प्रयोग है। भारतीय रेल ने दर्जनों की संख्या में पैसेंजर ट्रेन के नंबर की बाईं ओर शून्य लगा दिया। इसके बाद शून्य ने ऐसा कमाल दिखाया कि पैसेंजर ट्रेन एक्सप्रेस ट्रेन में बदल गई। पैंसेंजर के एक्सप्रेस ट्रेन में बदलते ही उस पर पैंसेंजर की जगह एक्सप्रेस का किराया लागू हो गया। इसके कारण रेलवे को प्रतिदिन सौ से सवा करोड़ की कमाई हो रही है। मतलब पैसेंजर ट्रेनों के उतने ही ठहराव होंगे। गति भी वही होगी। मगर रेलवे ने बता दिया कि महज शून्य के प्रयोग से कैसे पैसेंजर ट्रेन को एक्सप्रेस ट्रेन में बदला जा सकता है।

आपको याद होगा। कोरोना काल के दौरान भी रेलवे ने शून्य का अनोख प्रयोग किया था। अपनी सभी गाडिय़ों के नंबर से पहले शून्य लगा दिया था। पहले शून्य लगा कर पैसेंजर को एक्सप्रेस बनाया। यात्रियों से पैसेंजर की जगह एक्स्रपेस ट्रेन का किराया वसूला। इसके बाद सभी एक्सप्रेस ट्रेन के नंबर से पहले शून्य लगा कर उसे स्पेशल ट्रेन बना दिया। इसका लाभ यह हुआ कि रेलवे इन ट्रेनों में पहले की तरह सुविधा देने के दायित्व से मुक्त हो गई। इसके अलावा चूंकि ट्रेन स्पेशल हो गई, इसलिए उसे मनमाना किराया वसूलने का अधिकार भी मिल गया।
वैसे यह यात्रियों का सौभाग्य है कि रेलवे धीरे धीरे शून्य से पीछा छुड़ा रहा है। इसके कारण अंक के बाईं ओर लग कर अपना महत्व बढ़ाने के नाम पर अधिक किराया चुकाने की मजबूरी धीरे-धीरे कम हो रही है। पहले सभी ट्रेनों के नंबर की बाईं ओर शून्य लगा कर ट्रेनों का दर्जा बढ़ाया गया। अब महामारी के करीब-करीब विलुप्त होने के बावजूद अब भी 70 पैंसेंजर ट्रेनें शून्य के बोझ में दब कर यात्रियों से ज्यादा किराया वसूल रही हैं।

इतना ही नहीं भारतीय रेल ने आपदा को अवसर बनाने का दूसरा मंत्र भी दिया है। कोरोना महामारी के दौरान घाटे का बहाना बना कर भारतीय रेल ने हर तरह की रियायत खत्म कर दी। वरिष्ठ नागरिक, पत्रकार, गंभीर बीमारी से ग्रसित मरीजों को मिलने वाली रियायतें खत्म कर दी। बीते दिनों कुछ वर्ग के लिए रियायतें देने की फिर से घोषणा हुई, मगर वरिष्ठ नागरिक अब भी इस दायरे से बाहर हैं। फिर बड़ी संख्या में ट्रेनों में डायनामिक फेयर प्राइसिंग की शुरुआत की। इसका नतीजा यह हुआ कि कई रूट पर रेलवे टिकट की कीमत हवाई जहाज की कीमत से भी ज्यादा हो गई।
मुश्किल है कि सरकारों में मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है। इस प्रवृत्ति के कारण ऐसे हथकंडों के बंद होने के आसार नहंीं दिख रहे। सरकार हमेशा घाटे का तर्क देती है। एक समूह सरकार के इस तर्क का समर्थन भी करता है। अब सवाल है कि क्या सरकार के इस तर्क को उचित ठहराया जा सकता है? जाहिर तौर पर नहीं। यह सही है कि अर्थव्यवस्था संभालना भी सरकार का दायित्व है। मगर उससे बड़ा दायित्व कल्याणकारी व्यवस्था भी कायम करने की है। सरकार अर्थव्यवस्था के दायित्व की चर्चा बार-बार करती है, मगर भूले भटके भी कल्याणकारी राज्य की स्थापना की बात नहंी करती। यह कैसी व्यवस्था है जिसमें कई राज्यों की अर्थव्यवस्था महज शराब पर टिकी है?

सरकार का काम सिर्फ मुनाफा कमाना नहीं है। वह इसलिए कि सरकारें उद्योगपति नहीं होती। सरकार का काम अपने सामान्य जनता का ख्याल भी रखना होता है। सरकारें किसी एक वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करती। वह सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है। सभी वर्गों में जो गरीब हैं, वंचित हैं, अधिकारविहीन हैं, उसकी आर्थिक, सामजिक क्षेत्र में रक्षा करना सरकार का पहला दायित्व है। आम जन के लिए सस्ती शिक्षा, चिकित्सा उपलब्ध कराना भी सरकारों का मुख्य दायित्व है। इसी तरह रेलवे को इस लायक बनाना भी सरकार का दायित्व है कि ट्रेनों में सफर करने के लिए सामान्य लोगों को बड़ा आर्थिक चोट नहीं पहुंचे। सब्सिडी भीख नहीं है। सामान्य लोगों को आर्थिक झंझवातों से राहत देने के लिए यह जरूरी है। हां, सब्सिडी के नाम पर महज वोट हासिल करने के लिए खजाना लुटाने को भी उचित नहीं ठहराया जा सकता। मगर सभी तरह की सब्सिडी को भीख की दृष्टि से देखने की प्रवृत्ति का भी समर्थन नहीं किया जा सकता। मुश्किल यह है कि सरकारें बिना सोचे समझे अर्थव्यवस्था और घाटे को ढाल बनाते हुए सब्सिडी खत्म करती जा रही है। उसके पास इसे खत्म करने का कोई उचित फार्मूला नहीं है। कोई बेहतर दृष्टि नहीं है।

 बेहतर दृष्टि, योजना के अभाव में सब्सिडी खत्म करने के गलत तर्क दिए जा रहे हैं। इसे कहीं से उचित नहीं ठहराया जा सकता।
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BY :-  डॉ० अमित जी ✍️
डायरेक्टर सेंटर फॉर एंबीशन आगरा


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