भारत में युवाओं की भारी तादाद और हमारे यहां की आबादी की सबसे ज्यादा मध्यमवर्गीय हैं। जो छोटे-मोटे रोजगार सरकारी और प्राइवेट नौकरियों पर निर्भर रहते हैं ।
क्योंकि सरकारी कंपनियों के रहते ही प्राइवेट में भी उनके कुछ हित सुरक्षित रहते थे क्योंकि दोनों में प्रतिस्पर्धा कई मुद्दों पर होती थी, और अपनी मांगों के लिए समय-समय पर आवाज भी लोग उठाते रहते थे।
लेकिन अधिकतर हिस्सेदारी 1-2 घरानों को वेच दी जाएगी तो सभी मजदूर से लेकर कर्मियों के अधिकार सीमित हो जाएंगे।
शोषण की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी।
एक तो पहले से ही देश में नौकरी के अवसर सीमित है। युवा चारों तरफ हाथ पर मरते थे तो कुछ लोगों को नौकरियां मिल जाती है जब एक एक करके सभी संस्थानों को बेच दिया जाएगा तो नौकरियां नहीं के बराबर हो जाएंगी पता चलेगा कि 10 सीट पर 10 करोड़ फार्म पड़ा करेंगे।
वैसे भी निजीकरण देश की सुरक्षा के लिए भी घातक है। सामाजिक समरसता संविधान के मूल भावना वंचित और शोषित वर्ग के उत्थान के मूल भावना सभी पर कुठाराघात है।
जिन देशों का भी लोग निजीकरण का तर्क देते हैं उनके यहां संसाधनों की संख्या बहुत ज्यादा है आबादी बहुत कम है जमीन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है और जरूरी और बुनियादी सुविधाओं का निजीकरण नहीं हुआ है।
भारत में भी निजीकरण का कभी किसी ने पहले विरोध नहीं किया था।
तमाम निजी कंपनियां पहले से ही चल रही थी निजी परिवहन निजी अस्पताल मुझे स्कूल बहुतायत संख्या में पहले से ही मौजूद हैं। निजी बैंक की भी कोई कमी नहीं है।
इन सबके बावजूद 80 पर्सेंट आबादी इन सभी में ना जाकर सरकारी संस्थानों और चीजों को इस्तेमाल करती है क्योंकि हमारे यहां प्रति व्यक्ति हैं भी बहुत कम है और गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या देश के आजादी के आनुपातिक प्रतिशत में बहुत अधिक हैं।
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