द्रौपदी मुर्मु देश की 15वीं राष्ट्रपति निर्वाचित हो गईं। राजग के पास जरूरी संख्याबल और विपक्ष में पड़ी फूट से उनकी जीत तय थी। नामांकन के बाद से ही सबकी निगाहें हार या जीत पर नहीं बल्कि जीत के अंतर पर थी। क्रॉस वोटिंग के कारण कारण मुर्मु को उम्मीद से ज्यादा मत मिले। विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा उम्मीदों के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाए।
बहरहाल मुर्म देश की पहली आदिवासी और दूसरी महिला राष्ट्रपति होंगी। राष्ट्रपति निर्वाचित होते ही उनके नाम कई कीर्तिमान दर्ज हो गए हैं। मसलन वह पहली महिला हैं जिन्होंने पार्षद से राष्ट्रपति पद तक का सफर किया है। आजादी के बाद पैदा होने वाली पहली महिला राष्ट्रपति निर्वाचित होने का कीर्तिमान भी उनके नाम दर्ज हो गया है। राष्ट्रपति पद का शपथ लेते ही मुर्मु देश की अब तक की सबसे युवा राष्ट्रपति बन जाएंगी। इसके अलावा मुर्मु ओडिशा से आने वाली पहली राष्ट्रपति होंगी।
जाहिर तौर पर राष्ट्रपति के रूप में मुर्मु का निर्वाचण ऐतिहासिक है। जिस पृष्ठभूमि से निकल कर वह देश का प्रथम नागरिक निर्वाचित हुई हैं, वह हमारी लोकतंत्र की खूबसुरती को दर्शाता है। उनका निर्वाचणय लोकतंत्र की ताकत और लोकतंत्र में विविधता का सम्मान की भी निशानी है। उनका निर्वाचण यह भी बताता है कि देश में लोकतंत्र में सभी वर्गों के लिए अवसर हैं। कोई सुदूर गांव में पैदा हुई संघर्षशील आदिवासी महिला भी देश की प्रथम नागरिक बन सकती हैं।
हां, बस यह न हो कि उनका निर्वाचण या यो कहें कि रायसीना हिल्स में पहली बार आदिवासी वर्ग का प्रवेश बस प्रतीकात्मक बन कर रह जाए। यह सवाल इसलिए कि मुर्मु जिस आदिवासी समाज से आती हैं, वही वर्ग इस देश के हाशिये पर है। शिक्षा, स्वास्थ्य, धन सभी मामले में अन्य वर्गों से पीछे है। इसी वर्ग में बेइंतहा गरीबी है तो इसी वर्ग का राजनीतिक व्यवस्था ने सर्वाधिक शोषण किया है। इसी शोषण के खिलाफ इसी वर्ग के इलाके में नक्सवाद और माओवाद देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए गंभीर संकट बन कर खड़ा हुआ।
हमें यह भी जानना चाहिए कि इसी वर्ग ने आजादी के बाद से अब तक सबसे अधिक पीड़ा पाई। विस्थान का दुख झेला। यह वही वर्ग है जिनकी जमीन के नीचे खनिज संपदा का अंबार है, मगर इन्हें दो जून की रोटी नसीब नहीं है।
प्रतीकात्मकता का सवाल इसलिए भी उठता है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था को सकारात्मक बदलाव में विश्वास नहीं है। राजनीतिक दल किसी वर्ग में बदलाव के लिए नहीं बल्कि वोट बैंक के लिए अलग-अलग समय में अलग-अलग वर्ग के चेहरे पर दांव लगाते हैं। मसलन एपीजे अब्दुल कलाम इसलिए राष्ट्रपति बने कि उस दौरान गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगे के कारण वाजपेयी सरकार बैकफुट पर थी।
दंगों का दाग धोने के लिए तब भाजपा ने कलाम को एक महान वैज्ञानिक के तौर पर उम्मीदवार नहीं बनाया, बल्कि एक मुसलमान के तौर पर इस वर्ग को संदेश देने के लिए उन्हें उम्मीदवार बनाया।
इस मामले में कलाम राजनीतिक दलों के अवसरवाद या वोट बैंक की राजनीति के इकलौते उदाहरण नहीं हैं। चुनिंदा राष्ट्रपतियों को छोड़ दें तो इस पद के लिए राजनीतिक व्यवस्था ने योग्यता की जगह वोट बैंक को तरजीह दी।
जहां वोट बैंक नहीं वहां राजनीतिक सत्ता को सबसे बड़े संवैधानिक पद पर ऐसा व्यक्ति चाहिए जो रबर स्टांप हो। सत्ता को गलत कार्य करने से रोकने की जगह उसकी हां में हां मिलाता हो। राजनीतिक सत्ता की इसी प्रवृत्ति के कारण देश ने देखा कि कैसे फखरुद्दीन अली अहमद ने बिना सोच विचार किए इंदिरा सरकार के आपातकाल के फैसले पर सहमति की मुहर लगा दी। कहा तो यहां तक जाता है कि जब आपातकाल लागू करने संबंधी कैबिनेट का प्रस्ताव उनके पास गया तो वह बाथ टब में लेटे थे। उन्होंने बाथ टब में लेटे-लेटे ही इस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर दिए। देश में अनगिनत उदाहरण हैं जब राष्ट्रपतियों ने राज्यों की सत्ता को बर्खास्त करने में केंद्र सरकार का सहयोग किया। सरकार की गलत नीतियों और गलत निर्णयों पर कभी सवाल नहीं उठाए। कभी राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने कहा था कि अगर इंदिरा गांधी उन्हें झाड़ू लगाने का आदेश दें तो इस आदेश को वह सहर्ष स्वीकार कर लेंगे।
हालांकि ऐसा भी नहीं है कि देश के शीर्ष पद पर बैठने वाली सभी शख्सियतों ने महज प्रतीकात्मक भूमिका ही अदा की। इसकी संख्या कम जरूर है, मगर कई राष्ट्रपतियों ने अपनी अलग पहचान बनाई। देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के बीच कई विषयों पर गहरे मतभेद रहे। केआर नारायणन ने इस पद पर रहते अपनी अलग छवि बनाई।
राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति के जूते के फीते बांधने के लिए कर्मचारी की नियुक्ति के दशकों से चली आ रही परंपरा को खत्म किया। बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने के प्रस्ताव को केंद्र को वापस कर दिया। नारायण पहले ऐसे राष्ट्रपति हुए जिन्होंने संसद में सरकार का लिखा अभिभाषण अक्षरश: पढऩे से इंकार कर दिया। दरअसल संसद में राष्ट्रपति का अभिभाषण सरकार तैयार करती है। गुजरात दंगे के बाद राष्ट्रपति के अभिभाषण में सांप्रदायिक सौहार्द बनाने के लिए सरकार की तारीफ की गई थी। नारायणन ने इसे पढऩे से इंकार कर दिया। अंतत: सरकार को उनके अभिभाषण से इन पंक्तियों को हटाना पड़ा।
कहने का आशय यह है कि द्रौपदी का राष्ट्रपति निर्वाचित होना ऐतिहासिक है, मगर यह सार्थक तब होगा जब इसके कारण आदिवासी वर्ग में जमीनी स्तर पर सकारात्मक बदलाव भी दिखे। आदिवासी समाज का शोषण करने, उनके विस्थापित करने वाली नीतियों का बनना बंद हो। इसकी जगह इस व्यापक समाज की प्रगति की नई नीतियां बने। इस दृष्टि से देखें तो द्रौपदी से उनके अपने समाज की ढेरों उम्मीदें हैं।
इस समाज को खुद के भला होने की उम्मीदें जगी हैं। यह जगी हुई उम्मीद को पूरा करना द्रौपदी की सबसे बड़ी चुनौती है। यह न हो कि उन्हें सर्वोच्च पद पर बैठा कर सत्ता बस वोट की फसल काट कर ले जाए। जाहिर तौर पर यह द्रौपदी के लिए खुद को साबित करने की चुनौती है। उन्हें यह साबित करना है कि उनमें इस सर्वोच्च पद पर आसीन होने की प्रचूर योग्यता है।
उनकी योग्यता और उनकी संघर्ष क्षमता पर अभी से सवाल उठाना उचित नहीं है। मुर्मु ओडिशा के आदिवासी समाज से जुड़ी उस सुदूर गांव से सफर करते हुए यहां तक पहुंची हैं, जिसे उनके राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनने पर पहली बार बिजली नसीब हुई। मुर्मु उस गांव से आती हैं जिसे उनके राज्यपाल बनने के बाद पहली बार सड़क मिला। खुद मुर्मु संघर्ष की जीती जागती मिसाल हैं।
उन्होंने गरीबी उस दंश को झेला है जो उनका समाज आज भी झेल रहा है। संघर्ष कर शिक्षा हासिल करने वाली द्रौपदी को पता है कि शिक्षा हासिल करने की राह में उनके समाज के सामने कितने तरह की दुश्वारियां हैं। कहने का आशय यह है कि द्रौपदी संघर्ष की भट्ठी में तप तक सर्वोच्च पद पर पहुंची हैं। पति और दो बच्चों को खोने के बावजूद परिवार को संभालते हुए इस मुकाम तक पहुंचना दिन में सपना देखने जैसा लगता है। ऐसे में देश को उनसे बेहतर की उम्मीद है। राष्ट्रपति पद को नया आयाम देने की आकांक्षा है। आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में उनका सर्वोच्च पद पर निर्वाचित होना एक ऐतिहासिक घटना है।
यह ऐतिहासिक घटना जब नया और सकारात्मक आयाम गढ़ेगी तभी उनके चयन की सार्थकता साबित होगी।
-------------------------
.......................✍️
आपका अपना
जगवीर चौधरी।
धन्यवाद !
0 Comments