राजनीति में युवाओं का दखल जरूरी
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क्यों ज़रूरी है युवाओं का राजनीति में आना?
समाज के बड़े-बूढ़ों द्वारा अक्सर ये बात कही जाती है कि पढ़े लिखे युवा राजनीति में आएँ. मगर युवा इन बातों को गंभीरता से नहीं लेते। शायद नौकरी की जुगत में राजनीतिक महत्वकांक्षा पीछे छूट जाती है। भौतिकवाद का भूत और पेट की भूख युवाओं के समय को निगल जाती हैं और आर्थिक समृद्धि प्राप्त करने की होड़ में ही युवा कब प्रौढ़ हो जाते हैं उन्हें ख़ुद भी अंदाज़ा नहीं होता।
मगर जब देश के स्थापित नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री तथा प्रधानमंत्री द्वारा अनैतिक व असंवैधानिक ही नहीं बल्कि अवैज्ञानिक टिप्पणी की जाती है तो उन युवाओं की राजनीति में कमी खलती है जो नैतिक, संवैधानिक व वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ-साथ शिक्षित भी हैं और समझदार भी। जिनका मानसिक रडार उन्हें बौद्धिकता के बादलों में गुम होने नहीं देता।
ऐसे पढ़े लिखे युवाओं का राजनीति में आना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि वर्तमान राजनीति को हास्य-व्यंग के मकड़जाल से निकालकर देश के वास्तविक मुद्दों पर लाना और उसे नया आयाम देना देश की सबसे बड़ी ज़रूरत है।
जब देश के किसी राज्य का मुख्यमंत्री किसी विचारधारा को थोपने की जल्दबाज़ी में अतीत काल में पुष्पक विमान, सर्जरी, Wi-Fi के होने की बात करे और देश की युवा पीढ़ी को अवैज्ञानिक ज्ञान परोसे तो सूझ-बूझ वाले युवाओं को चाहिए कि वो देश हित में सक्रिय राजनीति में आएँ और ऐसे ज्ञानियों को रिप्लेस कर दें।
जब देश के राजनेता किसी काल्पनिक राष्ट्र की स्थापना करने की बात कर लोगों को अराजक बनाने का काम करें तो ऐसे में देश के समझदार युवाओं को राजनीति में आकर प्रेम, सौहार्द और सहिष्णुता का प्रतीक बनकर ये संदेश देना चाहिए कि हम उस कल्पना को साकार करने में लगे हैं जो इस देश की बुनियाद है। देश को किसी और काल्पनिक राष्ट्र की कोई आवश्यकता नहीं है।
जब फ़सिवादी सरकारों द्वार पाठ्यक्रम को बदलकर देश का स्वर्णिम इतिहास और यहाँ की साझा सांस्कृतिक विरासत को तबाह करने का प्रयास किया जाए तो उस समय युवाओं को राजनीति में प्रवेश कर पाठ्यक्रम के माध्यम से बच्चों के मन-मस्तिष्क में ज़हर घोलने के षड्यंत्र को बेनक़ाब करना चाहिए और ये संदेश देने चाहिए कि किताबें और पाठ्यक्रम बदलकर आप देश की सच्चाई, स्वाभाव और इतिहास नहीं बदल सकते। और सच्चाई प्रेम है, इतिहास सौहार्द है, स्वभाव सहिष्णुता है।
देश के युवाओं के सामने ये परीक्षा की घड़ी है कि वो नेताओं के साम्प्रदायिक जाल में फँसकर धर्म और जातिवाद पर बात करते हैं या फिर इन सबसे ऊपर उठकर देश के वास्तविक मुद्दे जैसे प्रदूषण, ग़रीबी, आशिक्षा, अंधविश्वास, दहेज प्रथा, महिला सुरक्षा, शराबबंदी, बेरोज़गारी जैसे गम्भीर मुद्दों पर बात करते हैं।
हमारा देश Happiness Index में पड़ोसी मुल्क से पीछे है, क्या ये मुद्दा नहीं है? प्रदूषण के कारण बड़े शहरों में बच्चे ज़हरीली हवा में साँस ले रहे हैं.. क्या ये मुद्दा नहीं है? दहेज अब भी देश में अभिशाप है .. क्या ये मुद्दा नहीं है? महिलाएँ और बच्चियाँ राष्ट्रवादी सरकारों में भी सुरक्षित नहीं हैं… क्या ये मुद्दा नहीं है? अगर है तो इन मुद्दों पर बात करने के लिए युवाओं को राजनीति में आना होगा और देश को एक नई राजनीतिक दिशा देकर देश की दशा को बदलना होगा। वरना मौजूदा राजनेता दूषित ज्ञान देकर रडार और कैमरा व ईमेल की बहस में उलझाए रहेंगे और समय बहुत आगे निकल जाएगा।
क्या वर्तमान राजनेता अपने भाषणों की अमर्यादित भाषा से देश की युवा पीढ़ी को गंदी राजनीतिक विरासत नहीं दे रहे हैं? क्या देश के नेता एक दूसरे को चोर और नीच कह कर भाषा का स्तर नीचे नहीं गिरा दिए हैं? आप ही बताइए, जिनकी भाषा का स्तर गिरा हुआ हो वो देश का स्तर ऊपर कैसे ला सकते हैं?
-देश का युवा वर्ग थोड़ा भटक गया है। आज इसको सही मार्गदर्शन की सबसे अधिक जरूरत है।
-संविधान प्रदत्त देश के नागरिक के अधिकारों व कर्तव्यों से युवाओं को भलीभांति परिचित कराना होगा।
-उन्हें यह बताया जाना चाहिए कि यदि आप देश से अपेक्षा रखते हैं तो उसके प्रति आपके कर्तव्य भी हैं।
हमें क्या मिलेगा, यह भी है प्रश्न
आखिर युवा भारत में राजनीति से क्या चाहते हैं? उनके द्वारा चुन कर आने वाले नेता कैसे होने चाहिए? निश्चित रूप से वे ऐसे नेता चाहते हैं जो चुनाव से पहले किए गए वादे पूरे करें, जो अपनी कथनी के प्रति जिम्मेदार हों और जनता के प्रति जवाबदेह हों। युवाओं का सबसे बड़ा मुद्दा है कि राजनीति से भ्रष्टाचार दूर होना चाहिए। नेता अपनी आइडियोलॉजी, कास्ट और जेंडर से ऊपर उठ कर आगे आएं। राजनीति में परिवारवाद की समस्या जड़ से खत्म हो। लेकिन बरेली के युवा मोटिवेशनल स्पीकर फैजान शेख कहते हैं, 'कहीं न कहीं युवा उन बुनियादी सेवाओं को ढूंढते हैं जो उन्हें उनके स्तर पर मिलनी चाहिए। उन्हें कोई मतलब नहीं है कि कौन-सी राजनीतिक पार्टी लीड कर रही है और राजनीति का क्या परिदृश्य है। उन्हें दिलचस्पी होती है कि उन्हें क्या मिलने वाला है। हाल ही में न्यूनतम आय की बात हुई तो वह उनकी रुचि की बात है।'
मानवता दूसरे नंबर पर न हो
दिल्ली यूनिवर्सिटी के साउथ कैंपस के छात्र हिमांशु तिवारी चाहते हैं कि अब जो भी नेतृत्व आए वह युवाओं को प्राथमिकता दे। सबसे पहले हमारी शिक्षा व्यवस्था में सुधार की जरूरत है। एक इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलप करने की जरूरत है क्योंकि दिमाग वहीं से बन रहे हैं। राजनीति से युवाओं की उम्मीदें बताते हुए कहते हैं हिमांशु, 'मुझे लगता है कि कृषि पर भी ध्यान देने की जरूरत है। इंडस्ट्री भारी पड़ रही है कृषि पर। हम डिजिटल इंडिया की बात करें तो हमारे पास संसाधन भी सारे होने चाहिए। विश्वविद्यालय की राजनीति में बाहर के दलों का काफी हस्तक्षेप रहता है। मैं चाहता हूं कि राजनेता अपने क्षेत्र तक राजनीति करें। अपने स्तर तक रखें। घुसपैठ नहीं होनी चाहिए।
आज सभी की सहनशक्ति एग्रेशन की तरफ बढ़ रही है। राजनीति को उग्र बनाकर परिदृश्य पेश किया जा रहा है। राजनीति पहले नंबर पर है और मानवता दूसरे नंबर। युवाओं के जागरूक नहीं होने और सुनी-सुनाई बातों पर अपना विचार बना लेने को गलत मानते हैं। वे कहते हैं, 'हम मोदी और राहुल की बात करते हैं लेकिन हमें यह पता नहीं होता कि कितनी सीटों से विधानसभा में जीत होगी? लोकसभा क्या होती है? राष्ट्रपति का चुनाव कैसे होता है? यह चीजें ही युवाओं के सामने स्पष्ट नहीं होतीं और कम उम्र में ही हम आसपास की बातें सुनकर एक विचार बना लेते हैं और स्वंय को बुद्धिजीवी समझने लगते हैं जबकि हममें समझ विकसित नहीं हो पाती।'
क्या समझौता करने का मूड में हैं युवा
राजनीति में इतना कुछ घट रहा है, समाज बदलना तो दूर, राजनीति निजी जागीर बन गई है और युवा वर्ग खामोश है तो क्या युवाओं ने सामाजिक, राजनीतिक जकड़बंदी से टकराने के बजाय उससे समझौता करने का मूड बना लिया है। युवा छात्र नासिर कहते हैं कि राजनीति में बहुत नकारात्मकता है। मैं इसमें नहीं आना चाहता। मैं आरटीआइ कार्यकर्ता हूं। जिस जगह मैं रहता हूं वहा हमेशा मुझ पर दबाव आता है कि मैं अपनी आरटीआइ वापस ले लूं। हिमांशु कहते हैं कि हम युवा पॉलिटिकल साइंस को प्रोडक्टिव सब्जेक्ट की तरह पढ़ते हैं ताकि इससे पैसे कमा सकें।
इस सोच के कारण युवाओं के सामने यह एक जॉब ओरिएंटेड फ्रेम बन गया है, जिससे सेवा का भाव दूसरे नंबर पर चला गया है। इसी के कारण राजनीति पिछड़ी है। वे युवाओं को आगे आने का समाधान बताते हैं, 'मुझे लगता है कि हम पढ़ें ज्यादा, समझें ज्यादा और उसके बाद माइंडसेट डेवलप कर स्वस्थ परिचर्चा करें। हमें वोट देने में भी अपनी सोच बनानी है। अपनी और समाज की बेहतरी देखनी है। हम अंबेडकर को पढ़ें, गांधी पढ़ें तो हम ज्यादा अच्छा सोच पाएंगे।'
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