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कोरोना काल के अभिशप्त बच्चों का सवाल
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अपना देश और अपने देश की राजनीति अजीब है। राजनीति और राजनीतिक दलों की प्राथमिकता भारत की जरूरतों से मेल नहीं खाते। देश की राजनीति और राजनीतिक दल देश को अजायबघर बनाने के लिए आमदा दिखते हैं। किसी भी दल में जनता की बुनियादी जरूरतें उसके एजेंडे के आखिरी पायदान में है। विश्वास न हो तो राजनीति की वर्तमान स्थिति को देखिये। संसद का मानसून सत्र चल रहा है। सत्र में पेगासस जासूसी मामला छाया हुआ है। इस कारण संसद की कार्यवाही नहींं चल रही। दूसरा मुद्दा नीट में ओबीसी आरक्षण से जुड़ा हुआ है। सरकार से आरक्षण को हरी झंडी मिलने के बाद देश की राजनीति में श्रेय की होड़ चल रही है। सभी दल एक दूसरे को सामाजिक न्याय विरोधी बताने पर जुटे हुए हैं।
अब जरा तस्वीर का दूसरा पहलू देखिये। बीते करीब डेढ़ साल से लगभग ग्रामीण भारत में पढ़ाई ठप है। ग्रामीण भारत में अधिकांश परिवारों की ऑनलाइन शिक्षा हासिल करने के लिए जरूरी टेबलेट या स्मार्ट फोन नहीं हैं। अधिकांश राज्यों के पास ऑनलाइन शिक्षा उपलब्ध कराने का इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है। कहने का अर्थ है कि बीते डेढ़ साल से 20 करोड़ ग्रामीण बच्चे पढ़ाई से वंचित हैं। वह भी तब जब इस देश में शिक्षा को कानूनी अधिकार में शामिल गया है। संविधान में शिक्षा की गारंटी की व्यवस्था की गई है। अब आप जरा याद कीजिये। क्या किसी भी दल ने इतने बड़े मामले को अपना मुद्दा बनाया है? किसी भी दल ने बच्चों की पढ़ाई न हो पाने के मामले में संसद में चर्चा का नोटिस दिया है? जवाब है नहीं।
सवाल है कि आप किसी भी वाद की राजनीति करें। किसी भी विचारधारा को मानें। क्या कोई वाद या कोई विचारधारा आपको बच्चों की शिक्षा को मुद्दा बनाने से रोकती है। खासतौर पर सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दलों की हालत बेहद अजीब है। इन्हें कौन समझाए कि जब बच्चे पढ़ाई ही नहीं कर पाएंगे तब वह आगे चल कर आरक्षण का लाभ किस आधार पर ले सकेंगे। क्या इन्हें पता नहीं है कि इस डिजिटल असमानता के कारण ये दल जिस वर्ग की राजनीति करते हैं उसी वर्ग को सबसे ज्यादा नुकसान हो रहा है? मगर मजाल है कि सामाजिक न्याय की राजनीति के पैरोकार मानने वाले इन दलों के मुंह से इस डिजिटल असमानता के खिलाफ एक शब्द भी निकले।

खासतौर से कोरोना काल में यह डिजिटल असमानता देश में एक बेहद खतरनाक स्थिति पैदा कर रही है। यह कोई छिपा तथ्य नहीं है कि बेहतर सुविधाओं के कारण शहरी बच्चे ग्रामीण बच्चों पर हर मामले में बीस पड़ते जा रहे हैं। शहरी बच्चों के पास कोरोना काल में भी शिक्षा हासिल करने केबेहतर माध्यम हैं। दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्रों की हालत किसी से छिपी नहीं है। बदतर स्कूली ढांचे के कारण ग्रामीण भारत के प्राथमिक विद्यालयों के 60 फीसदी बच्चों को ठीक से पढऩा लिखना नहीं आता। जरा सोचिये, पहले से ही कमजोर ये करोड़ों बच्चे जब डेढ़ साल से मामूली शिक्षा से भी दूर रहेंगे तो उनकी कैसी दुर्गती हो रही होगी। उनका भविष्य क्या होगा? क्या ये बच्चे आगे बढ़ कर कभी प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल होने का सपना भी देख सकेंगे? जाहिर तौर पर नहीं। ऐसे में देश में डिजिटल असमानता ग्रामीण भारत के साथ आपराधिक अन्याय कर रही है। और शर्मनाक यह है कि अपने देश में इतना बड़ा मामला, करोड़ो बच्चों के भविष्य से जुड़ा मामला राजनीतिक दलों के लिए कोई मुद्दा नहीं है।

अब जरा इन आंकड़ों पर गौर कीजिये। ये आंकड़े बताते हैं कि कोरोना काल में जहां सरकारी शिक्षा का ढांचा तहस नहस हो चुका है, वहीं ऑनलाइन ट्यूटोरियल कंपनियों की पौ बारह है। इसके लिए बस एक कंपनी का उदाहरण देन काफी होगा। दस साल पहले स्थापित ऑनलाइन ट्यूटोरियल कंपनी बायजूस का वर्तमान बाजार मूल्य एक लाख 22 हजार करोड़ रुपये है। इसकी तुलना में अपने देश केस्कूली शिक्षा का बजट महज करीब 55 हजार करोड़ रुपये ही है। कोरोना काल में बायजूस ने करोड़ों रुपये के विज्ञ्ंाापनों के सहारे अरबों रुपये कमाए। करोड़ों लोगों से जम कर मोटी फीस वसूला। सवाल है कि जब एक मामूली कंपनी करोड़ों अमीर घरों के बच्चों तक पहुुंच बना सकती है तब हमारी सरकार ऐसी ही पहुंच गरीब बच्चों तक क्यों नहीं बना सकती? वह भी तब जब सरकार के पास इस क्षेत्र में ढांचा पहले से मौजूद है। सरकार के पास शिक्षक हैं, स्कूली भवन हैं। इसके बावजूद यह बेरुखी बताती है कि सरकारों ने नौनिहालों के भविष्य को मंझधार में छोडऩे का मन बना लिया है।

  आप कहेेंगे कि इसमें सरकार क्या कर सकती है? जवाब बेहद सरल है। दुनिया के कई देशों ने बच्चों के हित में कई विकल्प आजमाए हैं। मसलन चीन का ही उदाहरण लीजिये। वहां कोरोना काल में स्कूल बंद नहीं हैं। हालांकि ऑनलाइन ट्यूटोरियल कंपनियां वहां बीते कुछ वर्षों से लगातार हावी होती जा रही थी। अमीर घरों के बच्चे इसका लाभ उठा रहे थे। चीन ने इन ऑनलाइन ट्यूटोरियल कंपनियों तक सभी बच्चों की पहुंच बनाने के लिए इन सारी कंपनियों को गैरलाभकारी संगठनों में बदलने का फैसला लिया है। दुनिया में ऐसे तमाम देश हैं जो सभी बच्चों को एक जैसी शिक्षा उपलब्ध करा रही है। सवाल है कि क्या भारत में ऐसा संभव नहीं है? संभव है, मगर इसके लिए दृढ़इच्छाशक्ति और ग्रामीण भारत के लिए मन में सम्मान होना चाहिए। मुश्किल यह है कि देश की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में ग्रामीण भारत बस थोक के भाव में वोट उगलने की मशीन है। वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था से जुड़े दलों ने ग्रामीण भारत की भावनाओं का दोहन करके बस वोटों की फसल तैयार करने और मौका लगते ही इसे काट लेने तक ही अपनी भूमिका सीमित कर रखी है।

अब जरा इन आंकड़ों पर भी गौर फरमाएं। लोकल सर्कल नामक संस्था ने कोरोना काल में ऑन लाइन शिक्षा पर सर्वे किया था। देश के 203 जिलोंंमें कराए गए इस सर्वे में पता चला कि देश की 43 फीसदी आबादी के पास स्मार्ट फोन या टेबलेट नहीं है। ऐसी कोई भी चीज नहीं है जिससे इनकी पहुंच ऑनलाइन शिक्षा तक पहुंच पाए। देश मेंं स्कूल जाने वाले छात्रों की संख्या 26 करोड़ है। इनमें से करीब 75 फीसदी बच्चे ग्रामीण क्षेत्रों केहैं। जरा सोचिये हम इन ग्रामीण बच्चोंं के भविष्य के साथ कैसा घिनौना खिलवाड़ कर रहे हैं।
सवाल है कि जब देश में शिक्षा की गारंटी कानून लागू है, तब इसका मखौल बनाने के लिए जिम्मेदारी क्योंं नहीं तय की जानी चाहिए? आखिर करोड़ों बच्चों के भविष्य से हो रहे खिलवाड़ को कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है? मुश्किल यह है कि देश में इतने संवदेनशील विषय पर कोई सुगबुगाहट तक नहीं है। अदालतें भी शहरों में स्कूलों की फीस पर तो सुनवाई करती है, मगर ग्रामीण बच्चों के भविष्य पर कोई सुनवाई नहीं करती। राजनीतिक दलोंं के लिए यह कोई मुद्दा ही नहीं है। 

ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर वक्त के मारे ये बच्चे जाएं तो जाएं कहां? कौन इनकी फरियाद सुनेगा?

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